उज्जैन कांग्रेस की नेतागिरी फिर इंदौरी नेता के हाथ में
वह उज्जैन जिसने प्रकाश चंद्र सेठी, कैलाश जैन, डॉक्टर कल्पना परुलेकर, मनोहर बैरागी, बटुक शंकर जोशी, आजाद यादव जैसे कट्टर और धुआंधार निडर नेता दिए वो उज्जैन एक बार पुन: सिर उठाकर देखने की स्थिति में नहीं दिख रहा है, शर्मिंदगी का आलम यह है कि इन सब दिग्गज राजनीतिज्ञों के सामने नेतागिरी शुरू करने वाले नेताओं ने हमेशा उज्जैन कांग्रेसियों को जाने क्यों नेतृत्व विहीन किया हुआ है। सबसे पहले उज्जैन में सज्जन वर्मा ने लोकसभा का चुनाव लड़ा था उसके बाद तुलसीराम सिलावट भी उज्जैन लोकसभा से हाथ अजमा चुके हैं। उसके बाद प्रेमचंद गुड्डू उज्जैन शहर ही नहीं पूरे जिले में अच्छा-खासा दखल रहा था वह आलोट के विधायक भी बने थे बाद में उज्जैन लोकसभा के सांसद भी रहे। यानी देखा जाए तो विगत कई वर्षों से उज्जैन की नेतागिरी पर नियंत्रण इंदौरी आकाओं का ही रहा है। पार्षद का टिकट हो या विधायक का जाने क्यों लोकल नेतृत्व को दरकिनार किया जा रहा है और इंदौरी नेतृत्व पर पूर्ण रूप से निर्भरता दिख रही है। जिस तरह से प्रेमचंद गुड्डू के समर्थक और विरोधी गुट के कारण कांग्रेसी खत्म हुई, उसी तरह की स्थिति पुन: उज्जैन में निर्मित होने जा रही है। 2 दिन से जेल में बंद कांग्रेस के दोनों विधायक महेश परमार और मनोज चावला आखिर किसके आदेश पर यह तिरंगा यात्रा निकाल बैठे। और उसके बाद भी गिरफ्तार होने पर बाल हट और जब हट किया ही था तो डॉक्टर कल्पना परुलेकर बनना था जिसने महीनों रहकर अंतत: अपनी सरकार के विरुद्ध भी शंख बजाकर बिना शर्त रिहाई करवाई थी। आज स्वर्गवासी होने के बाद भी उनका नाम लड़ाकू नेताओं में लिया जाता है ऐसी स्थिति में यदि इन दोनों नेताओं को इज्जत के कचरे करवाना ही थे, तो बिना शर्त रिहाई का प्रण नहीं लेना था। आखिर यह समझ से बाहर है कि शहर के अनुभवी नेतृत्व ने भी क्या उन्हें सलाह नहीं दी और सलाह दी थी तो जीतू पटवारी के आगमन के पश्चात भी उसी रास्ते का अनुगमन क्यों किया जबकि उस रस्ते को 2 दिन पहले भी अनुगमित किया जा सकता था। इससे जनता में यह संदेश आ रहा है कि क्या वापस उज्जैन कांग्रेस इंदौरयों के कब्जे में आ गई है। आखिर उज्जैन कांग्रेसी कब अपने पैरों पर खड़ी होगी यह समझ से परे है।
पिछली विधानसभा में जीतू पटवारी का उज्जैन में नेतृत्व समझ आता है, पर अब क्या जरूरत थी
पिछले विधानसभा चुनाव में एक बड़ी विचित्र स्थिति निर्मित हुई थी की उज्जैन की आठों आलोट सहित विधानसभा पर भारतीय जनता पार्टी का कब्जा था इंदौर में भी आठों विधानसभा भारतीय जनता पार्टी के हाथ में थी देवास शाजापुर भी पूर्ण रूप से भाजपा के कब्जे में थी उस समय सज्जन वर्मा तक सोनकच्छ से चुनाव हार गए थे। तब कांग्रेस नेतृत्व के पास मालवा और निमाड़ अंचल में कुशल नेतृत्व विधायक का अभाव था, इसलिए बार-बार जीतू पटवारी को इंदौर से उज्जैन आना पड़ता था, कई आंदोलनों में उनकी गिरफ्तारियां भी हुई क्योंकि विधायक की उपस्थिति एक कवच का काम करती है। विधानसभा में प्रश्न उठते हैं और शासन करने वाली पार्टी निरुत्तर हो जाती है पर अब वह स्थिति नहीं है दो-दो दबंग विधायक आलोट और तराना के सडक़ों पर आ रहे हैं स्वयं नेतृत्व कर रहे हैं पर जेल में बंद होने के बाद आखिर क्यों उज्जैन कांग्रेस के नेतृत्व को शुतुरमुर्ग की तरह रेत में गर्दन गाडऩा पड़ी? क्या आंदोलन के पूर्व यह नेता उज्जैन शहर कांग्रेस को अपने पक्ष मैं नहीं कर पाए थे? यदि हां तो फिर जीतू के आने तक रिहाई के लिए इंतजार क्यों और यदि मुचलका भरना ही था तो फिर जीतू का इंतजार क्यों?
डॉक्टर कल्पना परुलेकर बनना बच्चों का खेल नहीं
महिदपुर की कांग्रेस विधायक डॉक्टर कल्पना परुलेकर अपने विचार और जिद के कारण स्वयं की शासन करने वाली कांग्रेस पार्टी तक का तगड़ा विरोध करने की काबिलियत रखती थी, दिग्विजय सिंह जैसा धुरंधर नेता उनके कारण घबराता था दिग्विजय सिंह के शासनकाल में उन्होंने किसान आंदोलन का नेतृत्व करके पूरी कांग्रेस गवर्नमेंट को हिला दिया था इस आंदोलन के दौरान कई बार उन्हें तोडऩे और कुचलने की कोशिश उनकी स्वयं की पार्टी द्वारा की गई पर किसानों के हित के कारण महीनो-महीनों तक जेल काटी पर जो कि नहीं उस दौरान जेलर और सुप्रिडेंट भी उनके साथ अमानवीय उलहाने देते थे पर वह लोह महिला हमेशा शासन को झुका कर ही जेल से बाहर निकली है। इस बार ऐसा लगा था कि उज्जैन को एक नहीं कांग्रेस में दो-दो कल्पना परुलेकर के रूप मिल गए हैं पर जैसे ही परिणाम देखा समझ आ गया की कल्पना परुलेकर बनना बच्चों का खेल नहीं है। त्याग, तपस्या और बलिदान के साथ में कुर्बानी भी मांगती है कल्पना परुलेकर की परिभाषा कई बार शुगर पेशेंट होने के बाद भूख हड़ताल जान पर खेलने वाली उस महिला की बराबरी कई लोगों ने सोशल मीडिया के माध्यम से इन बंद नेताओं से करने की कोशिश की आज वह खुद सोच रहे होंगे कि वह गलत थे।
लॉक डाउन के बावजूद जेल पर इक_ा भीड़ क्या उल्लंघन की श्रेणी में नहीं आता
परसों भी शहर कांग्रेस के कई कद्दावर नेता जेल गेट पर इक_ा हो गए थे पुलिस प्रशासन को सूचना मिली तो पुलिस ने उन्हें वहां से भगाया शुक्रवार को इंदौरी नेता जीतू पटवारी के आगमन के समय भी चार पहिया वाहनों का बड़ा कारवां उनके पीछे पीछे अनुगमन करता हुआ तमाम पुलिस बैरिकेडिंग को पार करता हुआ जेल गेट पहुंच गया, आखिर लॉक-डाउन के समय उज्जैन पुलिस या कलेक्टर द्वारा रेड जोन होते हुए इतनी भारी मात्रा में गाडिय़ों का जमावड़ा क्या परमिशन के आधार पर हुआ या लॉक डाउन का उल्लंघन? यह पुलिस प्रशासन और कलेक्टर को तय करना है क्योंकि इतना तय है अभी इनकी जगह आम आदमी होता तो उस पर प्रशासन कार्यवाही करत। फिर पुलिस प्रशासन समझौता करता क्यों नजर आया? क्या उन्हें लगता है कि वापस कांग्रेस सरकार बनाने जा रही है या भोपाल से आदेश थे की आंख मीच कर हाथी को निकल जाने दो चूहे को पकड़ लो? जिस अपराध के कारण महेश परमार और मनोज चावला को गिरफ्तार किया गया था वही वहीं भीड़ तो जेल गेट पर फिर प्रशासन मौन क्यों
‘‘पायलट वाहन की जगह वीनू कुशवाह को संभालने पड़ी कई जगह स्थिति’’
गाडिय़ों के कार्वे के बीच पूर्व पार्षद कांग्रेसी नेता बीनू कुशवाहा को आगे-आगे मोर्चा संभालना पड़ा उज्जैन पुलिस में अच्छी पकड़ रखने वाले इस नेता ने आगे-आगे मार्गदर्शन करते हुए जेल गेट चौराहे पर बनी बैरिकेडिंग से सिर्फ पांच गाडिय़ों को ही अंदर आने दिया नहीं तो जेल गेट पर काफी भीड़ लग जाती बाद में लोग वाहन बाहर खड़े करके पैदल ही अंदर आ गए। आखिर मामला कांग्रेस का था। कांग्रेसी की राजनीति से हमेशा दूर रहा है यह वर्तमान पुलिस अधिकारी भी अच्छी तरह से समझते हैं इसलिए बिना मगजमारी किए उन्होंने आंख बंद कर हाथी को चूहा बनकर जाने दिया।
महावीर प्रसाद वशिष्ठ के समय प्रदेश की राजनीति का केन्द्र था उज्जैन, अब उज्जैन की कमान ही नही सम्भाल पा रहे-
दिग्विजय सिंह जब मुख्यमंत्री थे उसे समय पुरे प्रदेश की कमान उज्जैन स्थित ‘‘दमदमा हाउस’’ से वशिष्ठ के हाथों संचालित होती थी, चाहे छोटे-मोट ट्रांसफर हो या बडे से बडे फेरबदल पुरे प्रदेश में किसी भी काम के लिए महावीर प्रसाद वशिष्ठ को याद किया जाता था किन्तु उनके जाने के बाद उज्जैन कांग्रेस ने अपना गौरव खोना शुरू कर दिया और हर छोटी-बडी बात में सिर्फ इन्दौरी नेताओं का दामन थामना पडता है, चाहे फिर वह सज्जन सिंह वर्मा हो, प्रेमचंद गुड्डू या अब जीतू पटवारी इससे लगता है कि उज्जैन के कांग्रेसी नेताओं में अब नेतृत्व की छमता या तो खत्म हो गई है या उन्हें प्रदेश के किसी बडे स्तर के नेता द्वारा दर किनार करने की साजिश की जा रही है, खेर कांग्रेस मे कलह कोई नई बात नहीं है।